विंध्य के सतना में तीन महाबलियों में मुकाबला, किसका पलड़ा भारी कह पाना कठिन

विंध्य के सतना में तीन महाबलियों में मुकाबला, किसका पलड़ा भारी कह पाना कठिन

Competition between three strongmen in Vindhya’s Satna, it is difficult to say whose side has the upper hand

 दिनेश निगम ‘त्यागी’

सतना । विंध्य अंचल की सतना लोकसभा सीट के लिए 1996 में हुआ चुनाव भुलाया नहीं जा सकता। तब प्रदेश के दो पूर्व मुख्यमंत्री वीरेंद्र कुमार सकलेचा भाजपा से और अर्जुन सिंह तिवारी कांग्रेस से मैदान में थे। बसपा ने सुखलाल कुशवाहा को प्रत्याशी बनाया था। चुनाव यादगार इसलिए है क्योंकि सुखलाल दोनों पूर्व मुख्यमंत्रियों अर्जुन सिंह और वीरेंद्र कुमार सकलेचा को हरा कर बाजी मार ले गए थे। सतना में एक बार फिर इसी तरह के मुकाबले के आसार हैं। भाजपा ने विधानसभा चुनाव हारने के बावजूद अपने सांसद गणेश सिंह पर फिर भरोसा किया है और कांग्रेस ने उन्हें चुनाव हरा कर विधायक बने सिद्धार्थ  को ही उनके मुकाबले खड़ा किया है। बता दें, सिद्धार्थ 1996 में अर्जुन सिंह और वीरेंद्र कुमार सकलेचा को हराने वाले सुखलाल कुशवाहा के ही बेटे हैं। बसपा की ओर से मैदान में हैं मैहर क्षेत्र से 4 बार विधायक रहे नारायण त्रिपाठी। क्षेत्र में ब्राह्मणों की तादाद सर्वाधिक लगभग साढ़े 5 लाख है। बसपा का अपना वोट बैंक है ही। इनकी दम पर नारायण भी जीत की उम्मीद कर रहे हैं। इसी आधार पर सतना में तीन महाबलियों के बीच त्रिकोणीय मुकाबले के आसार हैं। 

 भाजपा, कांग्रेस, बसपा की ताकत-कमजोरी

 सतना विधानसभा चुनाव में पराजय से साफ है कि भाजपा के गणेश सिंह से लोग प्रसन्न नहीं हैं। विधानसभा में एक क्षेत्र सतना के लोगों ने गणेश के खिलाफ अपना गुस्सा प्रदर्शित किया है, लोकसभा चुनाव में अन्य क्षेत्रों में भी इसका असर देखने को मिल सकता है। गणेश सिंह मोदी लहर के भराेसे जीतने का दावा करते हैं लेकिन  लोगों की नाराजगी को काबू में करना उनके लिए बड़ी चुनौती है। हर बार गणेश को ही प्रत्याशी बनाने से भाजपा के अंदर भी नाराजगी है। कांग्रेस के सिद्धार्थ लगातार चौथा चुनाव लड़ रहे हैं। विधानसभा के दो चुनाव वे जीत चुके हैं जबकि महापाैर के चुनाव में उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा था। गांव- गांव फैला कुशवाहा समाज का वोट उनकी ताकत है।  लेकिन बार बार उन्हें मौका देने से पार्टी में नाराजगी भी है। बसपा के नारायण दल बदल में अव्वल हैं। भाजपा, कांग्रेस, सपा में रहने के बाद वे अपनी पार्टी भी बना चुके हैं और अब बसपा से मैदान में हैं। इसकी वजह से लोग उन पर भरोसा करने के लिए तैयार नहीं हैं। बावजूद इसके ब्राह्मण समाज में पकड़ उनकी ताकत बन सकती है।

 कांग्रेस को अजय-राजेंद्र का साथ जरूरी

 सतना लोकसभा सीट में कोई मिलावट नहीं है। जिले की सभी सात विधानसभा सीटें इसके तहत आती हैं। ये सीटे हैं चित्रकूट, रैगांव, सतना, नागौद, मैहर, अमरपाटन और रामपुर बघेलान। कोई दूसरा जिला इसमें शामिल नहीं है। क्षेत्र में पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह और अमरपाटन से विधायक राजेंद्र सिंह भी ताकतवर हैं। अजय सिंह 2014 में यहां से चुनाव लड़ चुके हैं और लगभग 8 हजार वोटों के अंतर से ही हारे थे। उनके पिता पूर्व मुख्यमंत्री स्व अजुर्न सिंह भी यहां से सांसद रहे हैं। इस नाते उनके समर्थकों की अच्छी खासी तादाद क्षेत्र में है। यदि सिद्धार्थ को अजय सिंह और राजेंद्र कुमार सिंह का साथ मिल जाए तो वे कड़ी टक्कर दे सकते हैं। भाजपा के पास पांच विधायकों की ताकत है। अजय सिंह के कई समर्थक भाजपा में शामिल हो चुके हैं। इसका लाभ भाजपा को मिल सकता है।

  कई मायने में भाजपा का पलड़ा भारी

 विधानसभा चुनाव में मिली सीटें और वोटों के लिहाज से सतना में भाजपा का पलड़ा भारी है। क्षेत्र की दो सीटों सतना और अमरपाटन में ही कांग्रेस का कब्जा है जबिक शेष पांच सीटें भाजपा के पास हैं। कांग्रेस से खुद सिद्धार्थ सतना से विधायक हैं और दूसरे अमरपाटन से पार्टी के वरिष्ठ नेता राजेंद्र कुमार सिंह। कांग्रेस का दोनों सीटों में जीत का अंतर 10 हजार 531 वोटों का ही रहा जबकि भाजपा ने बड़ी बढ़त ली है। भाजपा ने पांचों सीटें 1 लाख, 4 हजार 74 वोटों के अंतर से जीती हैं। इस तरह भाजपा को विधानसभा चुनाव मेंे ही लगभग 95 हजार वोटों की बढ़त हासिल है। सतना भाजपा के गढ़ के रूप में भी तब्दील है। 1998 से लगातार यहां भाजपा ही जीत रही है। 1998, 1999 के दो चुनाव रामानंद सिंह जीते और चार बार से गणेश सिंह ही सतना से सांसद हैं।

 राष्ट्रीय के साथ स्थानीय मुद्दों का भी असर

सतना ऐसा लोकसभा क्षेत्र है जहां राष्ट्रीय के साथ प्रादेशिक और स्थानीय मुद्दे भी चुनाव में असर डालते हैं। भाजपा मोदी लहर पर सवार है लेकिन सांसद गणेश सिंह से नाराजगी भी मुद्दा है। व्यक्तिगत नाराजगी के कारण ही वे विधानसभा का चुनाव हार गए। सतना में जातीय समीकरण मुद्दों की तरह काम करते हैं। कई समाजों की दूसरे समाजों से नहीं बनती। इसकी वजह से एक समाज एक जगह जाता है तो प्रतिद्वंद्वी समाज दूसरे दल की ओर रुख कर लेता है। क्षत्रिय और ब्राह्मण में छत्तीस का आंकड़ा रहता है। भाजपा केंद्र एवं राज्य सरकार के कामों के बूते वोट मांगेगी और कांग्रेस उनकी नाकामियां गिनाएगी। कांग्रेस की अपनी गारंटियां भी चुनाव का मुद्दा हैं।

 ब्राह्मण ज्यादा, पिछड़ा वर्ग भी कम नहीं

सतना लोकसभा चुनाव में जातीय समीकरण महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। क्षेत्र में ब्राह्मण मतदाताओं की तादाद सबसे ज्यादा लगभग साढ़े 5 लाख के आसपास है। यह वर्ग गणेश सिंह से नाराज बताया जाता है। इसका लाभ बसपा के नारायण त्रिपाठी को मिल सकता है। दलितों का एक हिस्सा बसपा को वोट देता ही है। हालांकि त्रिपाठी न होते तो ब्राह्मणों का बड़ा हिस्सा कांग्रेस में जा सकता था। दूसरे नंबर पर लगभग डेढ़ -डेढ़ लाख पटेल और कुशवाहा समाज के मतदाता हैं। इनका क्रमश: भाजपा के गणेश और कांग्रेस के सिद्धार्थ के पास जाना तय है। इनके अलावा पिछड़े वर्ग की अन्य जातियां भी काफी तादाद में हैं। इनका भाजपा और कांग्रेस के बीच बंटवारा हो सकता है।