जामनदी की खतरनाक परंपरा: गोटमार मेले में एक दिन में 1000 घायल.


Dangerous Tradition of Jamnadi: 1,000 Injured in a Single Day at Gotmar Fair.
Special Correspondent, Pandhurna, MP Samwad.
Pandhurna’s historic Gotmar Mela turns bloody as over 1000 injured in stone-throwing ritual. Tradition rooted in a 300-year-old love story continues despite strict police presence and Section 144 enforcement. The festival ends only when the sacred flag falls into the river, symbolizing peace.
MP संवाद, पांढुर्णा, जामनदी के तट पर शनिवार को गोटमार मेले के दौरान फिर से सदियों पुरानी खूनी परंपरा निभाई गई। सुबह सूरज की पहली किरण के साथ ही सावरगांव के युवाओं ने नदी के बीच पलाश के पेड़ पर झंडा गाड़ा और ढोल-नगाड़ों की थाप के बीच पत्थरबाजी का दौर शुरू हुआ।
पत्थरों की बारिश में 1000 से अधिक घायल
प्रशासन की जानकारी के अनुसार, दोपहर तक करीब 350 लोग घायल हो गए थे, जबकि शाम तक यह संख्या 1 हजार से भी अधिक हो गई। तीन युवकों को गंभीर चोटें आईं और उन्हें नागपुर रेफर किया गया। प्रशासन ने धारा 144 लागू की थी और भारी पुलिस बल तैनात किया गया, लेकिन परंपरा के चलते मेले का खौफनाक खेल जारी रहा।
प्रशासन की मौजूदगी और मेडिकल सहायता
कलेक्टर अजय देव शर्मा और एसपी सुंदर सिंह सहित भारी पुलिस बल मौके पर मौजूद थे, लेकिन पत्थरबाजी को रोक नहीं सके। घायल लोगों को तुरंत पास के अस्थायी मेडिकल कैंप में ले जाया गया। घायलों के लिए 6 अस्थाई स्वास्थ्य केंद्र बनाए गए हैं. मौके पर 600 पुलिस जवान, 58 डॉक्टर और 200 मेडिकल स्टाफ तैनात है. कलेक्टर अजय देव शर्मा ने धारा 144 भी लागू कर दी है.
झंडा गिरते ही रुकी पत्थरबाजी
गोटमार मेले की खासियत है कि जब तक पलाश के पेड़ पर झंडा लहराता रहता है, तब तक खूनी खेल चलता रहता है। दोनों गांव के लोग झंडे को गिराने के लिए पत्थर फेंकते हैं। शाम को झंडा नदी में गिरते ही पत्थरबाजी अचानक रुक गई और झंडे को चंडी माता मंदिर में समर्पित करने के बाद मेला समाप्ति की घोषणा की गई।
प्रेम कहानी से जुड़ी प्राचीन परंपरा
गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि गोटमार मेला पुराना है। यह परंपरा पांढुर्णा और सावरगांव के युवक—युवती की प्रेम कहानी से जुड़ी है। एक समय पर पांढुर्णा का युवक अपनी प्रेमिका को नदी पार ले जाते हुए गांव वालों द्वारा पकड़ लिया गया था। विरोध के बीच दोनों की मझधार में मौत हो गई और उसके बाद से यह परंपरा प्रतीकात्मक रूप से आजतक जारी है।