मैदानी खबर: बालाघाट में भारती और सम्राट का खेल बिगाड़ने कंकर उतरे

मैदानी खबर: बालाघाट में भारती और सम्राट का खेल बिगाड़ने कंकर उतरे

Field news: In Balaghat, stones came to spoil the game of Bharti and Samrat

  • बालाघाट में घट रही भाजपा, विरोध पड़ रहा भारती पर भारी, क्षेत्र के तीन दिग्गज नेताओं ने बनाई दूरी

बालाघाट में हमेशा की तरह मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही संभावित है लेकिन इनका खेल बिगाड़ने बसपा ने भी मजबूत प्रत्याशी मैदान में उतार दिया है। सांसद ढाल सिंह बिसेन का टिकट काट कर भाजपा ने पार्षद भारती पारधी को मैदान में उतारा है जबकि कांग्रेस ने जिला पंचायत अध्यक्ष सम्राट सरसवार पर भरोसा किया है। क्षेत्र के तेजतर्रार समाजवादी नेता कंकर मुंजारे बसपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। देश, प्रदेश की तरह बालाघाट में माहौल भाजपा के पक्ष दिख रहा है लेकिन कई मसलों पर पार्टी का विरोध भी है। 

भोपाल। महाकौशल अंचल की बालाघाट लोकसभा सीट का 2019 का चुनाव ढाल सिंह बिसेन ने लगभग ढाई लाख वोटों के अंतर से जीता था। बालाघाट में भाजपा की यह अब तक की सबसे बड़ी जीत थी लेकिन पार्टी ने अपने इस सांसद का टिकट काट कर नगर पालिका की पार्षद भारती पारधी को दे दिया। प्रत्याशी घोषित होते ही लगाए गए पहले बैनर से ही ढाल सिंह बिसेन का फोटो गायब था। बिसेन की टिप्पणी थी, लीजिए अभी से मेरी फोटो हट गई। ऐसे में ढाल सिंह से ईमानदारी से काम की उम्मीद कैसे की जा सकती है। प्रचार अभियान से वे दूरी बनाए दिख भी रहे हैं। बालाघाट भाजपा के कद्दावर नेता गौरीशंकर बिसेन काम तो कर रहे हैं लेकिन पूरी ताकत से नहीं क्योंकि वे अपनी बेटी के लिए टिकट मांग रहे थे लेकिन मिला नहीं। बावजूद इसके माहौल भाजपा के पक्ष में ज्यादा दिख रहा है। 

कांग्रेस के सम्राट सरसवार भी कमजोर प्रत्याशी नहीं हैं। वे जिला पंचायत अध्यक्ष हैं और उनके पिता विधायक रहे हैं। इस नाते उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि भी है। बालाघाट की विधायक अनुभा मुंजारे उस स्थिति में भी कांग्रेस का पूरी ताकत से प्रचार कर रही हैं जब उनके पति कंकर मुंजारे बसपा के टिकट पर मैदान में हैं। इस चुनाव में पति-पत्नी में ऐसे मतभेद हुए कि कंकर मुंजारे अपना घर छोड़कर एक झोपड़ी में रहने पहुंच गए हैं। पहले उन्होंने पत्नी अनुभा से कहा था कि वे घर छोड़कर चली जाएं क्योंकि मेरे घर में रहकर वे मेरे खिलाफ प्रचार नहीं कर सकतीं। विधानसभा की पूर्व उपाध्यक्ष हिना कांवरे भी कांग्रेस के लिए मेहनत कर रही हैं। लिहाजा हार- जीत भाजपा-कांग्रेस के बीच ही तय है लेकिन कंकर मुंजारे के कारण मुकाबला तीन कोणीय दिखाई पड़ रहा है। 

प्रदेश सरकार के मंत्री प्रहलाद पटेल 1999 में बालाघाट से सांसद रहे हैं। उन्होंने क्षेत्र में डेरा डाल रखा है। उनके प्रयास से जिला पंचायत उपाध्यक्ष राजा लिल्हारे और एक अन्य नेता नगपुरे ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया है। क्षेत्र में लोधी मतदाताओं की तादाद अच्छी खासी है, वे इस समाज को साधने की कोिशश कर रहे हैं। कंकर मुंजारे और सामाजिक कारणों से यह वर्ग भाजपा से कटा दिखाई पड़ रहा है। वैसे भी आमतौर पर इस सीट में जातीय आधार पर भी वोट पड़ते हैं। इसे ध्यान में रखकर पार्टियां टिकट देती हैं और जातीय समीकरणों को साधने की कोशिश भी होती है। चर्चा यह भी है कि जातीय समीकरणों के तहत भाजपा ने रणनीति के तहत कंकर मुंजारे को चुनाव लड़ाने में भूमिका निभाई है ताकि लोधी मतदाता कांग्रेस के पक्ष में एकमुश्त न जा सके।

किसानों में धान का समर्थन मूल्य भी मुद्दा

बालाघाट संसदीय क्षेत्र में राष्ट्रीय और प्रादेशिक मुद्दों के साथ स्थानीय मुद्दों पर भी चुनाव लड़ा जा रहा है। कांग्रेस ने यहां किसान कर्जमाफी और धान के समर्थन मूल्य को मुद्दा बना दिया है। भाजपा प्रत्याशी और अन्य नेता प्रचार के लिए पहुंचते हैं तो किसान पूछते हैं कि धान का समर्थन मूल्य 3100 रुपए करने की घोषणा का क्या हुआ। इसे लेकर एक किसान ने भाजपा की भारती पारधी की गाड़ी ही रोक ली थी। कांग्रेस किसानों का कर्ज माफ करने का वादा करती है और महिलाओं के बीच बताती है कि लाड़ली बहनों को 3 हजार रुपए मासिक देने का वादा किया गया था, वह भी पूरा नहीं हुआ। भाजपा राम लहर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे के साथ केंद्र एवं राज्य सरकार की योजनाओं को गिना रही है। कांग्रेस की ओर से घोषणा पत्र में किए गए वादे बताए जा रहे हैं। 5 न्याय और 24 गारंटियों का प्रचार किया जा रहा है।

विधानसभा में भाजपा-कांग्रेस की ताकत बराबर

विधानसभा में सदस्यता के लिहाज से भाजपा और कांग्रेस की ताकत लगभग बराबर है। क्षेत्र की 8 विधानसभा सीटों में दोनों दलों के पास 4-4 हैं। 4 माह पहले हुए विधानसभा चुनाव में लांजी, कटंगी, बरघाट और सिवनी भाजपा ने जीती थीं जबकि बैहर, परसवाड़ा, बालाघाट और बारासिवनी में कांग्रेस का कब्जा है। कांग्रेस ने चार सीटें 56 हजार 697 वोटों के अंतर से जीती है जबकि भाजपा की जीत का अंतर 60 हजार 203 वोटों का रहा है। इस दृष्टि से भाजपा की बढ़त महज 3 हजार 506 वोटों की ही है। लोकसभा चुनाव में इस अंतर को कवर करना कठिन नहीं है। 2018 के विधानसभा चुनाव में भी नतीजे लगभग इसी तरह के थे लेकिन भाजपा ने ढाई लाख वोटों के अंतर से लोकसभा चुनाव जीत लिया था। इसकी वजह राष्ट्रीय स्तर भाजपा के पक्ष में बना माहौल रहा है। यह माहौल इस चुनाव में भी देखने को मिल रहा है।

दो जिलों तक फैला है बालाघाट लोकसभा क्षेत्र

महाकौशल की बालाघाट लोकसभा सीट का भौगोलिक क्षेत्र दो जिलों तक फैला है। इसके तहत बालाघाट जिले की 6 एवं सिवनी जिलेकी 2 विधानसभा सीटें आती हैं। इनमें बालाघाट जिले की बैहर, लांजी, परसवाड़ा, बालाघाट, वारासिवनी, कटंगी और सिवनी जिले की दो विधानसभा सीटें बरघाट, सिवनी शामिल हैं। जहां तक बालाघाट सीट के राजनीतिक मिजाज का सवाल है तो 1991 और 1996 में यहां से कांग्रेस के विश्वेश्वर भगत जीते थे। इसके बाद से लगातार भाजपा का कब्जा है। दो बार गौरीशंकर बिसेन और एक बार प्रहलाद पटेल बालाघाट से सांसद रहे हैं। केडी देशमुख, बोध सिंह भगत और ढाल सिंह बिसेने भी एक-एक बार चुनाव जीते हैं। आमतौर पर बालाघाट में हार-जीत का अंतर एक लाख से कम रहा है लेकिन 2019 में पहली बार भाजपा ने लगभग ढाई लाख वोटों के अंतर से जीत दर्ज की। यह रिकार्ड टूटता है या नहीं, नतीजे बताएंगे।

क्षेत्र में पंवार, लोधी, मरार समाज का दबदबा

बालाघाट क्षेत्र में पंवार, लोधी और मरार समाज का बोलबाला है। लगभग हर चुनाव में जातीय समीकरण मुख्य भूमिका निभाते हैं। भाजपा की भारती पारधी पंवार समाज से हैं। उन्हें इसका लाभ मिलेगा। दूसरे नंबर पर लोधी समाज है। पंवार और लोधी समाज में अदावत रहती है। इसलिए लोधी के भाजपा के पक्ष में जाने की संभावना नहीं है। कांग्रेस के सम्राट सरस्ावार कलार समाज के हैं लेकिन इन्हें लोधी समाज का समर्थन मिल सकता है। कांग्रेस विधायक अनुभा मुंजारे इसी समाज से हैं। वे कांग्रेस का काम कर रही हैं। 

बसपा से चुनाव लड़ रहे कंकर मुजारे का भी समाज में असर है। वे इस समाज का बड़ा हिस्सा ले जा सकते हैं। तीसरे नंबर पर है मरार समाज। इस समाज से कांग्रेस की हिना कांवरे आती हैं। समाज को कांग्रेस के पक्ष में वे कितना कर पाती हैं यह देखने लायक होगा। कलार समाज की तादाद चौथे नंबर पर है। इसका लाभ कांग्रेस प्रत्याशी तो मिलना तय है। भाजपा के माहौल के सामने पिछले चुनाव में जातीय बंधन टूट गए थे, ऐसा इस बार भी हो सकता है। भाजपा ने सामाजिक आधार पर नेताओं को चुनाव प्रचार में उतार दिया है।

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